क्या दोषसिद्ध कैदियों के मौलिक अधिकार बने रहते हैं जानिये…
-सामान्य लोगो के मन में एक प्रश्न हमेशा आता है कि क्या कोई आरोपी अपराध करता है एवं उस पर कोई अपराध सिद्ध हो जाता है, तब उनको संविधान में मिले मौलिक अधिकार खत्म हो जाते हैं या बने रहते हैं इन सब का जबाब हम आपको आज के लेख में देगे।
भारतीय संविधान अधिनियम,1950 के अनुच्छेद 21 के अनुसार:-*भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि कोई भी दोषसिद्ध व्यक्ति या बन्दियों को अपने मूल अधिकारों से पूर्णतया वंचित नहीं किया जा सकता है।वे उस समय तक सभी संवैधानिक अधिकारों के हकदार रहते हैं जब तक कि उनको स्वतंत्रता से संवैधानिक प्रक्रिया द्वारा वर्जित नहीं कर दिया जाता है। एवं कारावासित होने के कारण उनके लिए सभी मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन सीमित हो जाते है। महत्वपूर्ण निर्णायक वाद:-1. डी.वी.ए. पटनायक बनाम आंध्रप्रदेश राज्य:- इस मामले में पिटीशनर नक्सलवादी थे एवं दोष सिद्ध हो गए थे, विशाखापट्टनम जेल में सजा काट रहे थे। सशस्त्र पुलिस गार्ड जेल के चारों तरफ पहरा देने के लिए रखे थे ओर जेल की दीवारों पर तार लगाकर उनमें बिजली दौड़ाई गई थी। पिटिशनरो ने यह तर्क दिया कि जेल-अधिकारियों द्वारा अपनाये गये इन उपायों से उनके अनुच्छेद 21 में प्रदत्त अधिकार पर अतिक्रमण होता है। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कोई भी व्यक्ति केवल दोषसिद्ध घोषित किये जाने से अपने समस्त मूल अधिकारों से वंचित नहीं हो सकता है। दोषसिद्ध होने के कारण यदि उसे जेल में रखा जाता हैं तब वह अपने कुछ ही मूल अधिकारों से वंचित हो जाता है जैसे:- भारत राज्य क्षेत्र में भ्रमण करने से या किसी अन्य देश में प्रवेश करने के अधिकार आदि से। लेकिन संविधान ऐसे मूल अधिकार प्रदान करता है जिसके उपयोग के लिए बन्दीकरण कोई रुकावट नहीं पैदा करता है जैसे संपत्ति के अर्जन, धारण और व्ययन का अधिकार आदि। इसी प्रकार एक दोष सिद्ध व्यक्ति को अनु• 21 द्वार प्रदत्त अधिकार भी प्राप्त है जिससे उसे विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना वंचित नहीं किया जा सकता है।
2. *बाबू सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य:-* इस मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि हत्या के मामले में आरोपी को बिना युक्तियुक्त कारण के जमानत नामंजूर करना उसे दैहिक स्वतंत्रता से वंचित करना है और असंवैधानिक है। न्यायाधिपति श्रीकृष्ण अय्यर ने न्यायालय का निर्णय सुनाते हुए कहा कि आरोपी को भी दैहिक स्वतंत्रता का मूल अधिकार प्राप्त है और बिना किसी कारण के उसे जमानत पर रिहा न करना अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है। आरोपी को जमानत देने से इंकार तभी किया जाना चाहिए जब समाज के कल्याण के लिए ऐसा करना उचित हो।
