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देश को खोखला करता मुफ्तखोरी और अतिक्रमण का दावानल

भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

लोक पर तंत्र के नियंत्रक बनकर स्थापित होने के लिए राजनैतिक दलों में दाव-पेंच की कसरत चल रही है। जाति के आधार से लेकर वर्गो में विभाजित करने की नीतियां सामने आ रहीं है। नागरिकों को मुफ्तखोर बनाकर निकम्मा करने की मंशा चरम सीमा पर है। शिक्षा, स्वस्थ, परिवहन, भोजन, आवास, स्वच्छता जैसी मूलभूत सुविधायें जब बिना कुछ किये मिलने लगें, तो फिर काम करने की आवश्यकता ही क्या है। एक खास वर्ग को खुश करने के लिए सरकारें बढ-चढ कर फ्री…फ्री…फ्री… की रट लगा रहीं हैं। जहां चुनावी दंगल होने वाला है वहां तो जातिगत आंकडों के आधार पर महात्व देने का क्रम भी चल निकला है। कहीं चित्रकूट मंथन में पिछडा एजेंडा पास होता है तो कहीं लखनऊ दरबार में ब्राह्मणों को लुभाने के पैतरों पर काम शुरू किया जाता है। दलितों को झंडे के नीचे लाने के लिए अप्रत्यक्ष में लुभावने प्रयास किये जा रहे हैं तो कहीं मुस्लिम समाज का ठेकेदार बनकर स्वयं को उनका एकमात्र नेता बताने वाले आगे आ रहे हैं। धार्मिक कट्टरता से लेकर अतीत के दु:खद पहलुओं तक को रेखांकित किया जा रहा है। इन सब के पीछे मुख्य मुद्दा दब सा गया है। उस ओर न तो सत्ता पक्ष कोई स्पष्ट खाका प्रस्तुत कर रहा है और न ही विपक्ष उन मुद्दों को उठा रहा है।

वर्तमान में हालात यह है कि जिस तरह से मुफ्तखोरी के लिए सरकारें खजाने खाली कर रहीं है, उसकी भरपाई कैसे होगी? इस दिशा में कोई भी बात करने को तैयार नहीं है। दान, अनुदान और महादान के नाम पर पैसा लुटाया जा रहा है। कुछ खास वर्गों को रेखांकित करके उन्हें सुविधाओं की सौगातों पर सौगातें दी जा रहीं है। क्या वास्तव में हमारी सरकारों के पास इतना धन संचय है कि वे आने वाले दसियों साल तक देश की एक बडी आबादी को मुफ्त में विलासतापूर्वक जीवन यापन के करने के साधन उपलब्ध कराती रहेंगी। वास्तविकता तो यह है कि देश खोखला होता चला जा रहा है। उसे मजबूत करने वाले भी अब मजबूर होते जा रहे हैं। मुफ्तखोरी के कारण कारखानों को श्रमिक नहीं मिल रहे है, धंधा करने वालों को संसाधन नहीं मिल रहे हैं, निर्माण कार्यों के लिए मजदूर नहीं मिल रहे हैं, व्यवसाय के लिए पूंजी नहीं मिल रही है। दूसरी ओर बैंकों ने ग्राहकों से मनमानी कटौती करना शुरू कर दी है, कोरोना काल में काम-धंधा न चलने के कारण तंगी से गुजरने वालों से कर्ज की वसूली  के फरमान जारी हो रहे हैं, बिजली बिल से लेकर गृहकर तक में आशातीत वृध्दि हो गई है, टैक्स भरने के नोटिस दिये जा रहे हैं, पेट्रोल-डीजल के दामों में कल्पना से परे की बढोत्तरी सामाने आ रही है, मंहगाई पर लगाम लगाने के स्थान पर उसे हवा देने का काम हो रहा है। ऐसे में यदि कोई मजे में है तो वह है सरकारी विभागों में काम करने वाले स्थाई कर्मचारी और अधिकारी, जिन्हें माह की पहली तारीख को एक बडी धनराशि मिल जाती है। काम हो या न हो, घोषित अवकाश हो या अघोषित अवकाश। सरकारी कर्मचारी-अधिकारी, भाई-भाई का नारा उडान भर रहा है। ऐसे में संविदा पर काम करने वालों का खून चूसने की तिकडमों भिडाई जा रहीं है।

आखिर आंकडों की बाजीगरी से कागजों का पेट जो भरना है। देश के सामने उपलब्धियों का खाका जो प्रस्तुत करना है। यह अलग बात है कि वह खाका सत्य के कितने नजदीक होता है। मुफ्तखोरी का जमाना खत्म होने के स्थान पर नित नये कीर्तिमान गढने में लगा है। ओलम्पिक में स्वर्ण पदकों की संख्या भले ही इकाई में हो परन्तु देश में मुफ्तखोरी में डायमण्ड मैडल जीतने वाले करोडों हैं। विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां निवासियों को मुफ्तखोरी की आदत डालने की होड लगी हो। प्रतिभा के विस्तार के स्थान पर आरक्षण, काम उपलब्ध कराने के स्थान पर मुफ्तखोरी, योग्यता के मापदण्डों पर समझौता करके जातिगत शिथिलता, वर्ग के आधार पर विभाजन करके प्राथमिकता, क्षेत्र के आधार पर पक्षपात जैसे अनेक कारक हैं जो राष्ट्र के निरंतर कमजोर होने की कहानी कह रहे हैं। प्रतिभायें कुण्ठित हो रहीं है तभी तो इंजीनियरिंग की डिग्रीधारी युवा आज सफाई कर्मचारी की भर्ती में लाइन लगा हैं। योग्यता में शिथिलता पा कर सेवायें देने वाले चिकित्सकों से उनकी नियुक्ति करने वाले भी इलाज करवाने से कतरा रहे हैं। जो राजनेता और अधिकारी सरकारी चिकित्सालयों के शिलान्यास-उद्घाटन करते हैं, वे स्वयं अपने लिए निजी अस्पतालों की सेवायें ढूंढते नजर आते हैं। मुफ्तखोरी के अलावा अतिक्रमण का खुले आम तांडव हो रहा है। देश में शायद ही ऐसा कोई गांव, कस्बा, नगर या महानगर होगा यहां शासन-प्रशासन के सामने ही अतिक्रमण न हुआ हो। देश की राजधानी के सबसे खूबसूरत कनार्ट प्लेस में गुमटियों, टपरों सहित त्रिपाल लगाकर खुले आम अतिक्रमण देखा जा सकता है।

यही हाल मुम्बई, कोलकता, चेन्नई जैसे शहरों का भी है। उत्तरदायी अधिकारी तथा जनप्रतिनिधि जिन रास्तों से होकर रोज गुजरते हैं, जब उन्हें सामने का अतिक्रमण नहीं दिखता तो फिर दूर दराज के इलाकों की चिन्ता किसे है। हां यह बात जरूर है कि जब किसी अधिकारी या राजनेता के व्यक्तिगत हित किसी स्थान विशेष या व्यक्ति विशेष से जुड जाते हैं, तब अतिक्रमण जैसी अनियमिततायें साकार होकर तूफानी गति से सामने आ जातीं है। आनन फानन में दण्डात्मक कार्यवाही शुरू हो जाती है। बाकी देश की किसे पडी है। देश को खोखला करता मुफ्तखोरी और अतिक्रमण का दावानल जब तक सरकारी संरक्षण पाता रहेगा तब तक न तो स्वर्णिम भविष्य की कल्पना ही सार्थक होगी और न ही राष्ट्र के मजबूत होने की कसमें खाई जा सकेंगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

एडवोकेट अरविन्द जैन

संपादक, बुंदेलखंड समाचार अधिमान्य पत्रकार मध्यप्रदेश शासन

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